कुसुम चौहान का नवीनतम काव्य संग्रह “सुनो प्रियतम”-”एक विहंगम दृष्टि”
लाइव न्यूज़ दिल्ली / डेस्क
सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और कुशल अभिनेत्री कुसुम चौहान का दूसरा काव्य संग्रह “सुनो प्रियतम” अभी प्रकाशित हुआ है और आजकल काफी चर्चा में है। इससे पहले उनका पहला कविता संग्रह “दिल के कोने में” भी पाठकों द्वारा बहुत पसंद किया गया। सुनो प्रियतम उनकी काव्य यात्रा का अगला पड़ाव है। या यों कहना चाहिए कि दिल के कोने में से जो सदा उठी है उसका तत्व-सार “!सुनो प्रियतम” में ही है। सुनो प्रितयम में कुसुम चौहान की कुल 76 कविताएं संग्रहित है।अल्हड़ जवानी की अंगड़ाईया लेती हुई ये कविताएं”सुनो प्रियतम कहकर प्रेम का दरिया बहाती हुई इतिहास बनूँगी का संकल्प लेती हुई विराम लेती है।
कुसुम चौहान की कविताएं पढ़ते हुए पाठकों को लगता है जैसे उन्होंने अपनी कविताओं में भावनाओ का अद्भुत संसार रच दिया है। भावों की गागर में भावनाओ का सागर भर दिया है। “सुनो प्रियतम में अपने प्रियतम को सुनाने के माध्यम से कवयित्री ने नारी मन की सारी संवेदनायें अलगअलग कविताओ में अलग अलग ढ़ंग से व्यक्त की है। इसमें शिल्प, विम्ब, और प्रतीकों का सुंदर प्रयोग देखने को मिलता है। उदाहरण के लिए “मैं चातक सी एकटक निहारु नभ को कि अब बरसे तू प्रियतम, कि तब बरसे तू प्रियतम।/ न जाने कितने सावन बरस गये। हर मेघ का बांध टूट गया। जी भरकर वह अपना गम, जग में बिखेर गया। इन पंक्तियों में स्वयं को चातक और प्रियतम को मेघ का प्रतीक बनाकर कवयित्री ने अपने प्रेम की अभिव्यक्ति की है। अपनी एक कविता में कवयित्री कहती है “न जाने ये कैसा दौर आया” खुद को खुद से जुदा पाया। ये पंक्तियां सचमुच विस्मित कर देती हैं और यही कविता की सार्थकता को चरितार्थ करती है।ऐसी ही एक कविता की पंक्ति “सच प्रेम जब प्यास से ऊपर उठ जाता है । देव तुल्य वो आभास हो जाता है।
कवयित्री जिंदगी में सारी बाधाओं को चुनौती देने और जूझने का माद्दा रखती है। वह अपराजित योद्धा है। वह लिखती है “हर आंधी तूफ़ान को अपनी काबिलियत से मात दूंगी, हिम्मत से फिर चलूंगी, चलती ही रहूंगी। कवयित्री का आत्मविश्वास इन पंक्तियों में और भी झलकता है। मैं क्यो मांगू , क्यो चाहूँ किसी भी मनुष्य से/ जबकि मैं जानती हूँ सब भिखारी है। कवयित्री ने कितने सुंदर शब्दों में विम्ब रखते हुये दुखों की अभिव्यक्ति “कितने दुखों में” शीर्षक कविता में इस प्रकार की है -जीवन के इस झमेले में , कितने संतापों को अधरों में छुपाया गया/ दृगों की विशालता देखो , अधरों से अधिक उनसे काजल के बहाने लहू बहाया गया।
अनेक आपदाओं को झेलते हुये भी कवयित्री को जिंदगी पर भरोसा है। तभी वह कहती है, माना कि है मुझ पर जिम्मेदारी का सैलाब, पर मैं क्या करूँ मरता ही नही/मुझमें सिमटा हुआ मेरा ख्वाब, तुमने उल्फत में मौत को चुना, और आजाद हो गये सारे जंजालों से। मैंने उल्फत में जिंदगी को चुना। और लड़ती रही कभी ख्वाबों से तो कभी हालातो से।
और आखिर में कवयित्री अपनी आखरी कविता में कहती है “चाहे कितनी भी बेरंग हो ये जिंदगी, मैं सतरंगी सपनों का आह्वान करती रहूंगी/अपने परिश्रम से ही अम्बर तक जाऊंगी/अपनी आकांक्षाओं को नई उड़ान देती रहूंगी, कुछ हो न हो इतिहास बनाती रहूंगी।
कुल मिलकर कुसुम चौहान की कविताओं में जिंदगी के हर रंग बिखरे हुए है। इनमें एक ओर जहां नारी मन की पीड़ा ,वेदना, ममता, प्रेम और वात्सल्य है तो साथ ही साहस, संघर्ष, विद्रोह और आत्मविश्वास तथा दृढ़ संकल्प की मानवता का भी अवलोकन होता है।निश्चय ही कुसुम चौहान की ये कविताएँ पाठकों की संवेदनाओं को झकझोरने वाली है। इसी लिए उनका यह कविता संग्रह पाठकों द्वारा रुचि के साथ पढ़ा और सराहा जा रहा है।
पुस्तक समीक्षा : रमेश चन्द्र घिल्डियाल
कवि/नाट्यकार/उपन्यासकार